जब
भी तुम किसी को प्रेम करते हो तो तुम स्वयं को पूर्ण रूप से विवश पाते हो।
प्रेम की यही पीड़ा है : व्यक्ति महसूस ही नहीं कर पाता कि वह क्या कर सकता
है। तुम सब कुछ करना चाहते हो, तुम अपने प्रेमी या प्रेमिका को पूरा
ब्रह्मांड देना चाहते हो,लेकिन तुम क्या कर पाते हो? यदि तुम यह निश्चय कर
पाते हो कि तुम यह या वह कर सकते हो तो अभी प्रेम संबंध निर्मित नहीं हुआ।
प्रेम बहुत विवश होता है, पूर्ण रुप से विवश, और यह विवशता ही इसकी
खूबसूरती है, क्योंकि इस विवशता में तुम समर्पण कर पाते हो।
तुम किसी को प्रेम करो तो तुम स्वयं को असहाय पाते हो, किसी को घृणा करो तो तुम कुछ कर पाते हो। किसी को प्रेम करो तो तुम स्वयं को पूर्ण रूप से विवश पाते हो, क्योंकि तुम क्या कर सकते हो? जो भी तुम कर सकते हो वह तुम्हें तुच्छ और अर्थहीन लगता है; यह कभी भी काफी नहीं लगता। कुछ भी नहीं किया जा सकता, और जब व्यक्ति को यह एहसास होता है कि कुछ भी नहीं किया जा सकता तो उसे यह महसूस होता है कि वह विवश है। जब व्यक्ति सब कुछ करना चाहता है और उसे एहसास होता है कि कुछ भी नहीं किया जा सकता तो मन थम जाता है। इस विवशता में समर्पण घटता है। तुम खाली हो जाते हो। यही कारण है कि प्रेम गहरा ध्यान बन जाता है।
जिस व्यक्ति को तुमने गहराई से प्रेम किया है, उसकी मृत्यु के क्षण तुम्हें तुम्हारी मृत्यु की याद दिलाते हैं । मृत्यु का क्षण एक महान रहस्योद्घाटन का समय है। यह तुम्हें अहसास दिलाता है कि तुम नपुंसक और विवश हो। यह तुम्हें अहसास दिलाता है कि तुम हो ही नहीं। तुम्हारे होने का धोखा मिट जाता है।
कोई भी विचलित हो जायेगा क्योंकि अचानक तुम पाते हो कि तुम्हारे पांओं तले से ज़मीन खिसक गयी है। तुम कुछ भी नहीं कर पाते। कोई जिसे तुम प्रेम करते हो, मर रहा है। तुम शाहोगे कि तुम उसे अपना जीवन दे दो लेकिन तुम ऐसा कर नहीं सकते। कुछ भी नहीं हो सकता। व्यक्ति नितांत निर्बल सा प्रतीक्षा करता रहता है।
वह घड़ी तुम्हें अवसाद से भर जाती है। वह घड़ी तुम्हें उदास कर सकती है या फिर तुम्हें सत्य की एक महान यात्रा पर ले जा सकती है.... खोज की एक महान यात्रा। यह जीवन क्या है? यदि मृत्यु आकर इसे ले जा सकती है तो यह जीवन क्या है? इसका क्या अर्थ है यदि व्यक्ति मृत्यु के खिलाफ इतना नपुंसक है? और स्मरण रहे हर कोई अपनी मृत्युशय्या पर है। जीवनोपरांत हर कोई अपनी मृत्युशय्या पर है। दूसरा कोई रास्ता नहीं है। सब बिस्तर मृत्युशय्या हैं, क्योंकि जन्म के बाद एक ही बात निश्चित है और वह है मृत्यु।
कोई आज मरता है, कोई कल , कोई परसों: मूलत: फर्क क्या है? समय कोई खास फर्क नहीं डालता। समय केवल जीवन का भ्रम पैदा करता है लेकिन वह जीवन जिसका अंत मृत्यु में हो, वास्तविक जीवन नहीं है। निस्संदेह यह स्वप्न होगा।
जीवन केवल तभी प्रामाणिक है जब यह शाश्वत हो। अन्यथा स्वप्न में और जिसे तुम जीवन कहते हो उसमें क्या अंतर है? रात्रि में, गहरी निद्रा में एक स्वप्न उतना ही सत्य होता है जितना कुछ और, उतना ही वास्तविक-बल्कि उससे भी अधिक वास्तविक जो तुम खुली आंखों से देखते हो। सुबह होते ही यह विलीन हो जाता है , कोई चिंह नहीं बचता। सुबह जब तुम उठते हो तो पाते हो कि यह एक स्वप्न था, सत्य नहीं।
जीवन का यह स्वप्न कुछ वर्षों तक चलता है, फिर अचानक व्यक्ति जागता है और पूरा जीवन एक स्वप्न सिद्ध होता है। मृत्यु एक महान रहस्योद्घाटन है। यदि मृत्यु न होती तो कोई धर्म न होता। यह मृत्यु ही है जिसके कारण धर्म का अस्तित्व है। यह मृत्यु ही है जिसके कारण बुद्ध का जन्म हुआ। सब बुद्धों का जन्म मृत्यु के बोध के कारण होता है।
जब तुम किसी मरते हुए व्यक्ति के पास जाकर बैठो तो अपने लिये अफसोस करना। तुम भी उसी नाव में हो, तुम्हारी भी वही परिस्थिति है। मृत्यु एक दिन तुम्हारे द्वार पर भी दस्तक देगी। तैयार रहना। इससे पहले कि मृत्यु दस्तक दे, घर लौट आओ। बीच में ही मत पकड़े जाना, अन्यथा यह पूरा जीवन एक स्वप्न की भांति विलीन हो जाता है और तुम स्वयं को अत्यंत दीन पाते हो, आंतरिक रूप में दीन।
जीवन, वास्तविक जीवन, कभी नहीं मरता। फिर मरता कौन है? तुम मरते हो। 'मैं' मरता है, अहं मरता है। अहंकार मृत्यु का हिस्सा है; जीवन नहीं। तो यदि तुम अहंकारशून्य हो सकते हो, तो मृत्यु तुम्हें कभी न मार पायेगी। यदि तुम सचेतन रूप में अहंकार को गिरा सकते हो तो तुमने मृत्यु पर विजय पा ली। यदि तुम सचमुच जागरूक हो तो तुम इसे एक क्षण में गिरा सकते हो। तयदि तुम इतने जागरूक नहीं तो तुम इसे धीरे- धीरे गिरा सकते हो। यह तुम पर निर्भर करता है। लेकिन एक बात निश्चित है: अहंकार को गिराना ही होगा। अहंकार के मिटते ही मृत्यु तिरोहित हो जाती है। अहंकार के गिरते ही मृत्यु भी गिर जाती है।
मरते हुए व्यक्ति के लिये अफसोस मत करो, अपने लिये अफसोस करो। मृत्यु को तुम्हें घेर लेने दो। इसका स्वाद चखो। अहसास करो कि तुम असहाय हो, नपुंसक हो। कौन असहाय महसूस कर रहा है, और कौन नपुंसक महसूस कर रहा है? अहंकार-क्योंकि तुम पाते हो कि तुम कुछ नहीं कर सकते। तुम उसकी सहायता करना चाहते हो परंतु कर नहीं पाते। तुम चाहते हो कि वो जीवित रहे लेकिन कुछ भी नहीं किया जा सकता।
इस नपुंसकता को जितनी गहराई से हो सके महसूस करो और इस विवशता से एक प्रकार की जागरूकता, एक प्रर्थना और ध्यान उठेगा। व्यक्ति की मृत्यु को सीढ़ी बनाओ, यह एक अवसर है। हर बात को अवसर बना लो।
उनके पास बैठो। मौन बैठो और ध्यान करो। उनकी मृत्यु को एक दिशा निर्देश होने दो ताकि तुम अपने जीवन को व्यर्थ न गंवाते रहो। यही तुम्हारे साथ भी होने वाला है।
तुम किसी को प्रेम करो तो तुम स्वयं को असहाय पाते हो, किसी को घृणा करो तो तुम कुछ कर पाते हो। किसी को प्रेम करो तो तुम स्वयं को पूर्ण रूप से विवश पाते हो, क्योंकि तुम क्या कर सकते हो? जो भी तुम कर सकते हो वह तुम्हें तुच्छ और अर्थहीन लगता है; यह कभी भी काफी नहीं लगता। कुछ भी नहीं किया जा सकता, और जब व्यक्ति को यह एहसास होता है कि कुछ भी नहीं किया जा सकता तो उसे यह महसूस होता है कि वह विवश है। जब व्यक्ति सब कुछ करना चाहता है और उसे एहसास होता है कि कुछ भी नहीं किया जा सकता तो मन थम जाता है। इस विवशता में समर्पण घटता है। तुम खाली हो जाते हो। यही कारण है कि प्रेम गहरा ध्यान बन जाता है।
जिस व्यक्ति को तुमने गहराई से प्रेम किया है, उसकी मृत्यु के क्षण तुम्हें तुम्हारी मृत्यु की याद दिलाते हैं । मृत्यु का क्षण एक महान रहस्योद्घाटन का समय है। यह तुम्हें अहसास दिलाता है कि तुम नपुंसक और विवश हो। यह तुम्हें अहसास दिलाता है कि तुम हो ही नहीं। तुम्हारे होने का धोखा मिट जाता है।
कोई भी विचलित हो जायेगा क्योंकि अचानक तुम पाते हो कि तुम्हारे पांओं तले से ज़मीन खिसक गयी है। तुम कुछ भी नहीं कर पाते। कोई जिसे तुम प्रेम करते हो, मर रहा है। तुम शाहोगे कि तुम उसे अपना जीवन दे दो लेकिन तुम ऐसा कर नहीं सकते। कुछ भी नहीं हो सकता। व्यक्ति नितांत निर्बल सा प्रतीक्षा करता रहता है।
वह घड़ी तुम्हें अवसाद से भर जाती है। वह घड़ी तुम्हें उदास कर सकती है या फिर तुम्हें सत्य की एक महान यात्रा पर ले जा सकती है.... खोज की एक महान यात्रा। यह जीवन क्या है? यदि मृत्यु आकर इसे ले जा सकती है तो यह जीवन क्या है? इसका क्या अर्थ है यदि व्यक्ति मृत्यु के खिलाफ इतना नपुंसक है? और स्मरण रहे हर कोई अपनी मृत्युशय्या पर है। जीवनोपरांत हर कोई अपनी मृत्युशय्या पर है। दूसरा कोई रास्ता नहीं है। सब बिस्तर मृत्युशय्या हैं, क्योंकि जन्म के बाद एक ही बात निश्चित है और वह है मृत्यु।
कोई आज मरता है, कोई कल , कोई परसों: मूलत: फर्क क्या है? समय कोई खास फर्क नहीं डालता। समय केवल जीवन का भ्रम पैदा करता है लेकिन वह जीवन जिसका अंत मृत्यु में हो, वास्तविक जीवन नहीं है। निस्संदेह यह स्वप्न होगा।
जीवन केवल तभी प्रामाणिक है जब यह शाश्वत हो। अन्यथा स्वप्न में और जिसे तुम जीवन कहते हो उसमें क्या अंतर है? रात्रि में, गहरी निद्रा में एक स्वप्न उतना ही सत्य होता है जितना कुछ और, उतना ही वास्तविक-बल्कि उससे भी अधिक वास्तविक जो तुम खुली आंखों से देखते हो। सुबह होते ही यह विलीन हो जाता है , कोई चिंह नहीं बचता। सुबह जब तुम उठते हो तो पाते हो कि यह एक स्वप्न था, सत्य नहीं।
जीवन का यह स्वप्न कुछ वर्षों तक चलता है, फिर अचानक व्यक्ति जागता है और पूरा जीवन एक स्वप्न सिद्ध होता है। मृत्यु एक महान रहस्योद्घाटन है। यदि मृत्यु न होती तो कोई धर्म न होता। यह मृत्यु ही है जिसके कारण धर्म का अस्तित्व है। यह मृत्यु ही है जिसके कारण बुद्ध का जन्म हुआ। सब बुद्धों का जन्म मृत्यु के बोध के कारण होता है।
जब तुम किसी मरते हुए व्यक्ति के पास जाकर बैठो तो अपने लिये अफसोस करना। तुम भी उसी नाव में हो, तुम्हारी भी वही परिस्थिति है। मृत्यु एक दिन तुम्हारे द्वार पर भी दस्तक देगी। तैयार रहना। इससे पहले कि मृत्यु दस्तक दे, घर लौट आओ। बीच में ही मत पकड़े जाना, अन्यथा यह पूरा जीवन एक स्वप्न की भांति विलीन हो जाता है और तुम स्वयं को अत्यंत दीन पाते हो, आंतरिक रूप में दीन।
जीवन, वास्तविक जीवन, कभी नहीं मरता। फिर मरता कौन है? तुम मरते हो। 'मैं' मरता है, अहं मरता है। अहंकार मृत्यु का हिस्सा है; जीवन नहीं। तो यदि तुम अहंकारशून्य हो सकते हो, तो मृत्यु तुम्हें कभी न मार पायेगी। यदि तुम सचेतन रूप में अहंकार को गिरा सकते हो तो तुमने मृत्यु पर विजय पा ली। यदि तुम सचमुच जागरूक हो तो तुम इसे एक क्षण में गिरा सकते हो। तयदि तुम इतने जागरूक नहीं तो तुम इसे धीरे- धीरे गिरा सकते हो। यह तुम पर निर्भर करता है। लेकिन एक बात निश्चित है: अहंकार को गिराना ही होगा। अहंकार के मिटते ही मृत्यु तिरोहित हो जाती है। अहंकार के गिरते ही मृत्यु भी गिर जाती है।
मरते हुए व्यक्ति के लिये अफसोस मत करो, अपने लिये अफसोस करो। मृत्यु को तुम्हें घेर लेने दो। इसका स्वाद चखो। अहसास करो कि तुम असहाय हो, नपुंसक हो। कौन असहाय महसूस कर रहा है, और कौन नपुंसक महसूस कर रहा है? अहंकार-क्योंकि तुम पाते हो कि तुम कुछ नहीं कर सकते। तुम उसकी सहायता करना चाहते हो परंतु कर नहीं पाते। तुम चाहते हो कि वो जीवित रहे लेकिन कुछ भी नहीं किया जा सकता।
इस नपुंसकता को जितनी गहराई से हो सके महसूस करो और इस विवशता से एक प्रकार की जागरूकता, एक प्रर्थना और ध्यान उठेगा। व्यक्ति की मृत्यु को सीढ़ी बनाओ, यह एक अवसर है। हर बात को अवसर बना लो।
उनके पास बैठो। मौन बैठो और ध्यान करो। उनकी मृत्यु को एक दिशा निर्देश होने दो ताकि तुम अपने जीवन को व्यर्थ न गंवाते रहो। यही तुम्हारे साथ भी होने वाला है।
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