ऐसी परिस्थिति में, जब आप सक्रिय ध्यान विधियों का प्रयोग नहीं कर
सकते, आप के लिये दो साधारण लेकिन प्रभावशाली निष्क्रिय विधियां उपलब्ध
हैं। ध्यान रहे कि इसके इलावा आप हमारे साप्ताहिक स्तंभ ´इस सप्ताह के
ध्यान´ और ´व्यस्त व्यक्तियों´ के लिये में और भी विधियां पायेंगे।
1. श्वास को देखना
श्वास को देखना एक ऐसी विधि है जिसका प्रयोग कहीं भी, किसी भी समय
किया जा सकता है, तब भी जब आप के पास केवल कुछ मिनटों का समय हो। आती जाती
श्वास के साथ आपको केवल छाती या पेट के उतार-चढ़ाव के प्रति सजग होना है।
या फिर इस विधि को आजमायें:
प्रथम चरण: भीतर जाती श्वास को देखना
अपनी आंखें बंद करें अपने श्वास पर ध्यान दें। पहले श्वास के भीतर आने
पर, जहां से यह आपके नासापुटों में प्रवेश करता है, फिर आपके फेफड़ों तक।
दूसरा चरण: इससे आगे आने वाले अंतराल पर ध्यान
श्वास के भीतर आने के तथा बाहर जाने के बीच एक अंतराल आता है। यह अत्यंत मूल्यवान है। इस अंतराल को देखें।
तीसरा चरण: बाहर जाती श्वास पर ध्यान
अब प्रश्वास को देखें
चौथा चरण: इससे आगे आने वाले अंतराल पर ध्यान
प्रश्वास के अंत में दूसरा अंतराल आता है: उस अंतराल को देखें। इन
चारों चरणों को दो से तीन बार दोहरायें- श्वसन-क्रिया के चक्र को देखते
हुए, इसे किसी भी तरह बदलने के प्रयास के बिना, बस केवल नैसर्गिक लय के
साथ।
पांचवां चरण: श्वासों में गिनती
अब गिनना प्रारंभ करें: भीतर जाती श्वास - गिनें, एक (प्रश्वास को न
गिनें) भीतर जाती श्वास - दो; और ऐसे ही गिनते जायें दस तक। फिर दस से एक
तक गिनें। कई बार आप श्वास को देखना भूल सकते हैं या दस से अधिक गिन सकते
हैं। फिर एक से गिनना शुरू करें।
“इन दो बातों का ध्यान रखना होगा: सजग रहना, विशेषतया श्वास की शुरुआत
व अंत के बीच के अंतराल के प्रति। उस अंतराल का अनुभव हैं आप, आपका अंतरतम
केंद्र, आपका अंतस। और दूसरी बात: गिनते जायें परंतु दस से अधिक नहीं; फिर
एक पर लौट आयें; और केवल भीतर जाती श्वास को ही गिनें।
इनसे सजगता बढ़ने में सहायता मिलती है। आपको सजग रहना होगा नहीं तो आप
बाहर जाती श्वास को गिनने लगेंगे या फिर दस से ऊपर निकल जायेंगे।
यदि आपको यह ध्यान विधि पसंद आती है तो इसे जारी रखें। यह बहुमूल्य है।” ओशो
2. विश्रांति के चार तल
यह विशेष ध्यान विधि उन घड़ियों के लिये उपयोगी है जब आप बीमार होते
हैं क्योंकि यह आपके तथा आप के देह -मन के बीच एक प्रेमपूर्ण सूत्र स्थापित
करने में तथा सौहार्द्र् पैदा करने में सहायक होती है। तब अपनी उपचार
-प्रक्रिया में आपका योगदान सक्रिय होने लगता है।
पहला चरण: देह
"जितनी बार हो सके, स्मरण रखें और देखें कि कहीं आप अपनी देह के भीतर
कोई तनाव तो नहीं लिये चल रहे- गर्दन, सिर, टांगें... इसे होशपूर्व शिथिल
करते जायें। शरीर के उसी अंग पर जायें और उसी अंग को सहलायें, इसे
प्रेमपूर्वक कहें ‘शांत हो जाओ!’
आप हैरान हो जाएंगे कि यदि आप अपने शरीर के किसी हिस्से को संबोधित
करते हो तो यह सुनता है, यह आपकी बात मानता है–यह आपका शरीर है! आंखें बंद
करके पैर के अंगूठे से लेकर सिर तक शरीर के भीतर जायें - उस स्थान को
ढूंढते-ढूंढते -- जहाँ पर तनाव हो। और फिर उस अंग से इस प्रकार बात करें
जैसे किसी मित्र से करते हों; अपने तथा अपने पूरे शरीर के बीच संवाद होने
दें। इसे शिथिल होने को कहें और इसे बतायें, ´कहीं कोई डर जैसी बात नहीं।
घबराओ मत। मैं हूं यहां - तुम्हारी देख -भाल के लिये, तुम विश्रांत हो सकते
हो।´ धीरे-धीरे आपको इसका गुर आ जायेगा। और तब शरीर विश्रांत हो जाता है।"
दूसरा चरण: मन
“फिर दूसरा चरण है, थोड़ा और गहरा; मन को शांत होनें दें और अगर शरीर
सुन सकता है तो मन भी सुनता है। परंतु आप मन से शुरुआत नहीं कर सकते। आपको
शुरुआत से शुरु करना होगा। आप मध्य से नहीं शुरु कर सकते। अधिकतर लोग मध्य
से शुरु करते हैं और असफल रहते हैं; वे इसलिये असफल रहते हैं क्योंकि वे
गलत जगह से शुरु करते हैं। हर चीज़ को सही दिशा में करना चाहिये।
अगर आप होशपूर्वक शरीर को विश्रांत करने में सक्षम हो जाते हैं तो आप
मन को भी होशपूर्वक विश्रांत करने में सफल होगें। मन ज़रा अधिक पेचीदा घटना
है। एक बार आपको आत्मविश्वास हो जाये कि शरीर आपकी सुनता है तो आपको अपने
ऊपर नया भरोसा आयेगा। अब तो मन भी आपकी सुनने लगेगा - इसमें समय लग सकता है
परंतु ऐसा घटता है।”
तीसरा चरण: हृदय
“जब मन शांत होने लगे तो हृदय को शांत करना शुरु करें-हृदय, जो
तुम्हारी संवेदनाओं, तुम्हारी भावनाओं का जगत है, जो और भी जटिल है, और भी
अधिक सूक्ष्म है। अब आप श्रद्धापूर्वक आगे बढ़ते हैं, अपने प्रति अति
श्रद्धापूर्ण। अब तुम जान जाओगे कि यह संभव है। यदि यह शरीर के साथ संभव
है, मन के साथ संभव है तो हृदय के साथ भी संभव है।”
चौथा चरण: केंद्र
“तब इन तीन चरणों से गुज़र कर आप चौथे चरण में प्रवेश कर सकते हैं। अब
आप अपने अंतस के अंतरतम केंद्र बिंदु तक जा सकते हैं जो आपके शरीर, मन व
हृदय के भी पार है - आपके अंतस का केंद्र।
आप इसे भी शांत करने में सफल होंगे और यह विश्रांति निस्संदेह आपके
लिये सबसे अधिक आनंद लाती है, और जो आनंदातिरेक तथा समग्र-स्वीकार का शिखर
है। आप आनंद तथा आल्हाद से भर जायेंगे। आपके जीवन में नृत्य की गुणवत्ता आ
जायेगी।”
ओशो: द धम्मपद: द वे ऑफ द बुद्धा वॉल्युम 1
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